लोकसभा चुनावों पर फेसबुक का असर?

Date Posted: April 15, 2019 Last Modified: April 15, 2019

आईआरआईएस नॉलेज फाउंडेशन और इंटरनेट ऐंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने अप्रैल, 2013 में एक अध्ययन किया था। इसमें यह दावा किया गया था कि देश के कुल 543 लोकसभा सीटों में से 160 ‘उच्च प्रभाव’ वाली लोकसभा सीटें फेसबुक से प्रभावित हो सकती हैं।

उस वक्त कई लोगों ने इस दावे को खारिज किया था। लेकिन इस बात में किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि पिछले साढ़े पांच साल में सोशल मीडिया और खास तौर पर व्हाट्सएप के इस्तेमाल में काफी बढ़ोतरी हुई है। अब विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं को यह लगता है कि सोशल मीडिया का न सिर्फ शहरी मतदाताओं बल्कि ग्रामीण मतदाताओं पर भी गहरा असर है।

सोशल मीडिया के प्रभावों को लेकर लोगों की अलग-अलग राय है। लेकिन यह बात स्थापित हो गई कि जिन सीटों पर मुकाबला करीबी होता है, उन सीटों पर चुनावी नतीजे सोशल मीडिया से प्रभावित हो रहे हैं। 

अर्थशास्त्री और पूर्व इंवेस्टमेंट बैंकर प्रवीण चक्रवर्ती 2014 लोकसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस पार्टी के डाटा विश्लेषक के तौर पर काम कर रहे थे। उन चुनावों में 543 सीटों में से भाजपा के 282 लोकसभा सीटें जीतने को उन्होंने अनापेक्षित परिणाम बताया।

भाजपा को उन चुनावों में 31.4 फीसदी वोट मिले थे। इनमें से 90 फीसदी वोट 60 फीसदी लोकसभा क्षेत्रों या स्पष्ट तौर पर कहें तो 299 संसदीय सीटों पर केंद्रित थे। भाजपा के बाकी के 10 फीसदी वोट 254 लोकसभा सीटों पर बिखरे हुए थे। 2019 के 17वें लोकसभा चुनावों को 2014 के मुकाबले और करीबी बताया जा रहा है। इससे इन चुनावों में सोशल मीडिया का इस्तेमाल हथियार के तौर पर किए जाने की आशंका और बढ़ जाती है।

फेसबुक ने भारत में अपना पहला कार्यालय 2011 में खोला था। उस वक्त भारत में फेसबुक इस्तेमाल करने वालों की संख्या 1.5 करोड़ थी। उस वक्त तक फेसबुक ने व्हाट्सएप को भी नहीं खरीदा था। हैदराबाद के इसके कार्यालय में अधिकांश लोग सेल्स का काम देखते थे।

इसके साल भर बाद फेसबुक ने अन्खी दास को भारत में पॉलिसी डायरेक्टर के पद पर नियुक्त किया। फेसबुक में आने से पहले वे माइक्रोसॉफ्ट इंडिया में कम्युनिकेशन हेड के तौर पर काम करती थीं। इस दौरान नेताओं, नौकरशाहों और नीति निर्धारकों से उनके बेहतरीन रिश्ते थे। इसलिए उन्हें फेसबुक ने अपने काम के लिए सबसे उपयुक्त समझा।

भारत में वह दौर सामाजिक और राजनीतिक अस्थिरता का था। 2011 में राष्ट्रीय स्तर पर भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन शुरू हुआ था। 2012 में दिल्ली में एक युवा लड़की के सामूहिक बलात्कार के मामले ने भी मध्यम वर्ग के लोगों को सड़कों पर ला खड़ा किया था। देश ऐसा विरोध प्रदर्शन देख रहा था, जैसा पहले कभी नहीं देखा गया था।

उस समय की मुख्य विपक्षी पार्टी भारतीय जनता पार्टी संसद की कार्यवाही बाधित कर रही थी। मीडिया में उस समय की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की सरकार में शामिल लोगों के भ्रष्टाचार से संबंधित खबरें भरी रहती थीं। कई राजनीतिक विश्लेषकों की नजर में मनमोहन सिंह की सरकार 2004 में सत्ता में आने के बाद से अपने सबसे बुरे दौर में थी।